श्री गुरू नानक देवजी : SHRI GURU NANAK DEV JI

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मानव जाति को नई दिशा देने वाले श्री गुरू नानक देवजी

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SHRI GURU NANAK DEV JI 



 इस धरती की यात्रा हजारों वर्षों की है। इस यात्रा में जब मानव सभ्यता के बीज अंकुरित हुये और इसने धीरे - धीरे पल्लवित होकर एक सभ्य सभ्यता का रूप ले लिया। इसके बाद से कई दिव्य पुरूष धरती पर अवतरित हुये, जिन्होंने संसार को काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहं के अंधियारे से निकालकर सदाचार और सत्य का मार्ग दिखलाया। अज्ञान से ज्ञान की ओर ले जाने का मार्ग प्रशस्त किया। किन्तु इनमें भी एक नाम सबसे अग्रिम पंक्ति में लिया जाता है जो ऐसी अलीक के प्रणेता हुये जिन्होंने उपदेशों, वचनों और कीर्तन के बीज बोकर विगत के खंडित समाज से अलग होकर सत्य, परोपकारी, वीर और निर्भय नव-समाज की नींव रखी। अपनी जीवन यात्रा में रूढ़ियों और जड़ परंपराओं की सीमाओं को लांघते हुये उस नई सृष्टि का निर्माण किया, जहाँ कोई जातिगत बंधन शेष रहा, कोई छुआछूत का भय। इस सृष्टि में नारियों को मान मिला और समाज के दबे-कुचले वर्ग को सम्मान जहाँ सबजन एक ईश्वर से एकाकार हुये। परोपकार, निडरता और भाईचारे की भावना का अंगीकार हुआ। ऐसी नई ऊर्जा से सबको प्रकाशित करने वाले स्वामी हुये श्री गुरू नानक गुरु नानक देव जी आज से 550 से भी अधिक वर्ष पहले नानकजी का प्रकाश  (जन्म) जब इस धरती पर हुआ तो उनके जीवन की संपूर्ण यात्रा ही मानव जगत के लिये उपदेषों की थाती बन गई जिसको जानकर कोई भी अंधकार से निकलकर प्रकाश को और अज्ञान को छोड़कर ज्ञान को पा सकता है। पर इसके लिये जो सबसे जरूरी बिंदु है वो यह है कि श्री गुरूनानक देवजी की जीवन यात्रा के हम सहयात्री बनें। तभी हम उनके जीवन प्रसंगों को जानते हुये उनके उपदेशों को पूरे मन से आत्मसात कर पायेंगे। तभी हमें जीवन के समर में उस मुक्ति की प्राप्ति हो पाएगी जिसके लिये हम तरहतरह के कर्मकाण्डों का रास्ता अपनाते हैं।

नानकजी की जीवन यात्रा के उपदेशों की श्रृंखला बेहद लंबी हैं इसलिये उन्हें समझने के लिये यहाँ उसे तीन भागों में विभाजित किया जा रहा है, जिसमें
पहला भाग - बाल्यवस्था के प्रसंग, समकालीन परिस्थितियाँ और शिक्षा।
दूसरा भाग - युवा अवस्था, धार्मिक यात्रा प्रसंग और शिक्षा।
तीसरा भाग - नानकजी के ईश्वर में एकाकार होने के बाद सिख धर्म की यात्रा।
  

पहला भाग : बाल्यवस्था के प्रसंग, समकालीन परिस्थितियां और शिक्षा

यह भारतीय सभ्यता के कालखण्ड में महापरिवर्तन का समय था। इस समय सदियों से भारत भूमि पर रह रही हिन्दू, जैन, बौद्ध जैसी अन्य सभ्यताओं को आतंकित करते हुये एक नई सभ्यता का आरोहण इस धरती पर हो चुका था। इससे पूर्व की समस्त सभ्यताओं के सांस्कृतिक, साहित्यिक, सामाजिक मूल्यों का पतन इस दौर में जारी था। नई सभ्यता के अगुआओं का लक्ष्य सुस्पष्ट था जिसमें अपने धर्म का प्रचार - प्रसार करना, भारत भूमि की सारी भूमि पर राज करते हुये यहाँ की संपदा, संसाधनों का भोग करना और नई सभ्यता का धर्म मानने वाले या शासकों द्वारा बनाये कायदों को मानने वाले लोगों को नष्ट कर देना ही मुख्य था। ये वो दौर था जब चहुँओर ऊहापोह की ही स्थिति का राज था। एक तरफ पहले से चले रहे धर्मों में विसंगतियों का समावेश  अपने उच्चतम प्रतिमान पर था, जिसमें इंसान को इंसान समझकर वर्ण व्यवस्था की मार झेलनी पड रही थी। धर्म के ठेकेदारों ने स्वयं को ईश्वर का दूत बताकर आमजन को अंधविश्वास के गहरे कुएँ में ढकेल दिया था। पाखंण्डियो का हर तरफ राज था। स्त्रियाँ सम्मान के दायरे से कोसों दूर थीं। कायरता को गले लगाकर लोगों ने तत्कालीन परिस्थितियों से समझौता कर लिया था। दैनिक रूप से आमजन तत्कालीन शासकों के जुल्मों का षिकार होते थे। ऐसे घटाटोप अंधकार के कालखण्ड में श्री गुरूनानक देवजी का प्रकाश इस धरती पर मानव सभ्यता को तारने के लिये कार्तिक पूर्णिमा, संवत् 1527 अथवा 15 अप्रैल 1469 (प्रचलित मान्यताओं के अनुसार) को राय भोई की तलवंडी (तत्कालीन समय लाहौर से प्रायः 40 किलोमीटर दूर तथा वर्तमान में ननकाना साहिब के नाम से प्रसिद्ध) में हुआ। उनकी माँ का नाम माता तृप्ता देवी और पिता का नाम लाला कल्याण राय (मेहता कालूजी) था। एक बड़ी बहन नानकी थी। उनकी पत्नी का नाम बीबी सुलखनी था।

श्री गुरू नानक देवजी की शिक्षा

रूढ़िवादी रीतियों का विरोध करना सीखें -  श्री गुरूनानकजी का जन्म हिन्दु परिवार में हुआ तो उनके माता-पिता ने हिन्दू रीति-रिवाजों को नानकजी के जीवन में उतारने की भी पूरी कोशिश की। लेकिन श्री गुरू नानक देवजी के तर्क की कसौटी पर हिन्दू परंपराएँ और मान्यताएँ खरीं उतरी। उन्होंने साहस का परिचय दिया और हर उस रीति का विरोध प्रकट किया जो उनके अनुसार खरी थी। उनके जनेऊ संस्कार पर उन्होंने जनेऊ पहनने से मना कर दिया। जनेऊ पहनने का कारण जब उन्होंने पंडितजी से पूछा तो वे तार्किक कारण स्पष्ट बता पाये जो श्री गुरू नानक देवजी के तर्कों के आगे टिक सके। श्री गुरू नानक देवजी ऐसा जनेऊ पहनना चाहते थे जो गंदा हो, टूटे और ही जले। पर पंडितजी तो बस वर्षों की रीति को बिना जाने - पहचाने निभाते हुये कर्मकाण्ड का ही काम करते रहे थे। श्री गुरू नानक देवजी ने उन्हें असली जनेऊ का अर्थ समझाते हुये कहा कि ‘‘जनेऊ ऐसा हो जिसमें दया की कपास हो, संतोष का सूत हो, संयम की गांठ हो और सच्चाई की पूरन हो। क्योंकि ऐसा जनेऊ गंदा होता है, टूटता है, जलता है और ही नष्ट होता है।“ 
इस तरह नानकजी ने बचपन से ही रूढ़िवादी रीतियों का परित्याग कर दिया। उनकी यह शिक्षा आज भी प्रासंगिक है, जड़ रूढ़िवादी नीतियों का विरोध करते हुये उनको ढोते रहना बुद्धिमानी का काम नहीं है। 

मानव सेवा ही परम धर्म है  -  बचपन में श्री गुरू नानक देवजी को उनके पिता ने कुछ पैसे देकर अच्छा सौदा करके लाने को कहा। जिसमें लाभ हो। श्री गुरू नानक देवजी ने उन पैंसों से भूखे साधू, संतों को भोजन करा दिया। जब यह बात उनके पिता को पता चली तो वे अपने पुत्र की नासमझी पर बहुत नाराज हुये। लेकिन श्री गुरू नानक देवजी ने उन्हें समझाया कि मानव सेवा से अधिक लाभ का सौदा और दूसरा नहीं है।
श्री गुरू नानक देवजी की मानव सेवा की वही बात आज सिख धर्म का आधार सूत्र है जिसमें मानव सेवा को ही सर्वोपरि माना गया है। मानव सेवा की उनकी कही बात की आज भी प्रासंगिकता बनी हुई है और आगे भी ये ऐसे ही बनी रहेगी।

दूसरा भाग : युवा अवस्था, धार्मिक यात्रा प्रसंग और शिक्षा

बाल अवस्था से निकलकर जब श्री गुरू नानक देवजी युवा हुये तब तक वे अध्यात्मिक संसार के अंतिम प्रतिमान को प्राप्त कर चुके थे। उन्होंने अपने अंदर जो अनुभव किया उस प्रकाश से पूरी दुनिया को रोशन करने के लिय अपनी पूरी युवा अवस्था को सांसारिक भलाई के लिये समर्पित कर दिया। युवा अवस्था के श्री गुरू नानक देवजी के जीवन से जुड़े कई ऐसे प्रसंग हैं जिनसे यह उद्घटित होता है कि कैसे उन्होंने अपने संदेशों और उपदेशों से तत्कालीन समय के अध्यात्मिक और सामाजिक जीवन में परिवर्तन लाये। नानकजी की शिक्षाओं से कई पुरातन जड़ मान्यताओं का अंत हुआ। मानव जाति का उद्धार हुआ। नानकजी की अध्यात्मिक शिक्षा इस प्रकार हैं जो पहले भी महत्वपूर्ण थी और आज भी प्रासंगिक है। 

पहली शिक्षा :  प्रभु एक है वही परब्रहम है। - श्री गुरू ग्रंथ साहिबजी के आरंभ में जपुजी को लिखने से पूर्व मूल मंत्र लिखा है -
ओंकार सतिनामु करता पुरखु निरभउ निरवै:
अकाल मूरति अजूनी सैभ गुरप्रसादि।।
अर्थ - अकालपुरूष एक है, उसका नाम अस्तित्व वाला है (भाव उसका अस्तित्व हर समय है।) वही संपूर्ण सृष्टि का रचनाकार है। सभी में व्यापक है, भय रहित है, वैर रहित है, उसका स्वरूप काल से परे है, (भाव नाश रहित है।) वह योनियों में नहीं आता, जन्म नहीं लेता, उसका प्रकाश अपने आप से ही हुआ है,(उसे पैदा करने/बनाने वाला कोई नहीं है वह सतगुरू की कृपा से ही प्राप्त होता है।)
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मनु भूला माइआ घरि जाइ
कामि बिरूधउ रहै ठाहि
हरि भज प्राणी रसन रसाइ
गैयर, हैयर, कंचन, सुत, नारी
बहु चिंता पिड़ चालै हारी
जुअै खेलणु काची सारी।।
अर्थ - प्रभु के साथ एकमेव होकर ही मनुष्य  आदर्श सफल जीवन व्यतीत कर सकता है। पर संसार में यह बात बड़े अचंभे वाली है कि अधिकतर लोग प्रभु से हटे हुये हैं या प्रभु के अस्तित्व से ही इंकार करते हैं। इसका कारण है माया। माया का स्वभाव है लोगों को प्रभु से तोड़कर संसार के नाशवान पदार्थों के साथ जोड़ना। प्रभुमुखी मानव संसार में रहते हुये भी इन पदार्थों के रसों से ग्रसित नहीं होता है जबकि मानव सांसारिक पदार्थां की प्राप्ति को ही अपना जीवन का उद्देश्य समझता है। इनकी प्राप्ति संभाल में लगा हुआ मानव केवल अपने सुखों के साधन ही एकत्र करता हुआ झूठ, फरेब, धोखा, चोरी, लूटमार आदि विकारों में अपना जीवन गंवा लेता है और इस संसार से कूच कर जाता है। यह सब माया का प्रभाव है।       
                  
पांच विकृतियों से सदा दूर रहना
अवरि पांच हम ऐक जना, किउ राखउ घर बार मना
मारहि लूटहि नीत नीत, किसु आगै करी पुकार जना
सिरी राम नामा उचरु मना
आगै जम दलु बिखमु घना।
अर्थ -  मानव पांच विकृतियों के कारण भ्रष्ट होते जाता है। जो हैं काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार। गुणवान आदमी भी अपने गुणों के बूते पर अहंकार से ग्रसित हो जाता है। नानकजी का कहना रहा है कि मानव इन पांच विकारों की मार से दुख भोगता रहता है।

जीवित रहते ही मिल सकती है मुक्ति - पहले धार्मिक मान्यताओं में यही विचार प्रचलित था कि मुक्ति केवल मृत्यु के पश्चात् ही प्राप्त की जा सकती है। सतगुरू नानकजी ने जीवन रहते हुये ही मुक्ति का सिद्धान्त दिया। उन्होंने कहा इसी जीवन में विकार रहित होकर प्रभु के संग एकासुर हो जाना ही जीवन मुक्ति है। नानकजी ने स्वर्ग और नर्क के डर से निकालकर लोगों को प्रभु के चरण कमलों की मौज प्रभु प्रीति का स्वाद चखाया। उन्होंने नाम का जाप करना, धर्म की नेक कमाई करनी, बांट कर खाने का सिद्धान्त लोगों को दिया। 

पांच खण्डों से होती है प्रभु प्राप्ति - श्री गुरू नानकदेवजी ने विगत के धार्मिक आख्यानों को दरकिनार करते हुये प्रभु प्राप्ति की राह को पांच खण्डों में बांटा। ये पांच अवस्थायें हैं - धर्म खण्ड, ज्ञान खण्ड, सरम खण्ड, कर्म खण्ड, सच खण्ड। वास्तव में ऐसी पांच अवस्थायें हैं जिनमें से होकर मनुष्य प्रभु के संग अभेदता प्राप्त करता है।
धर्म खण्ड -  इसमें मनुष्यों को अपने कर्तव्यों की अनुभूति होती है। उसे पता चलता है कि धर्म नेक काम करने का स्थान है।
ज्ञान खण्ड -  इसमें ऐसा ज्ञान प्राप्त होता है कि मानव के सभी प्रकार के वहम, भ्रम दूर होने लगते हैं।
सरम खण्ड - इसमें मानव को उद्यम करने की प्रेरणा दी गई है। मन का सांचा घड़ा जाता है। मन की सुरति, मन, बुद्धि, मति का विकास होता है।
कर्म खण्ड - इसमें अकालपुरख उसे बलवान बनाता है। विकार उससे दूर भागते हैं।
सच खण्ड - इसमें अकालपुरख की कृपा का पात्र बनकर मानव उसके संग एकमेव हो जाता है। यह सचखण्ड की अवस्था है। इस सब से ऊँची अवस्था का जिक्र आंखों द्वारा नहीं किया जा सकता है। 

गुरू अर्जुन देवजी ने धर्म की व्याख्या इन शब्दों में की है -
सरब धरम महि सरेसट धरमु
हरि को नाम जपि, निरमलु करमु।।
अर्थ -  प्रभु का नाम सुमिरन करना, उसके नाम का जाप करना तथा निर्मल कर्म करना ही श्रेष्ठ धर्म है। निर्मल कार्यों में अपने आचरण को ऊँचा निर्मल रखना, निर्भय निरवैर होना, किसी को हराना और ही अत्याचार के समक्ष झुकना, समूल मानव जाति की बिना धर्म, जाति, लिंग, रंग के भेदभाव से सेवा करना आदि सब कुछ जाता है।
इस प्रकार धर्म का ध्येय एक आदर्श मनुष्य का निर्माण करना हो जाता है जो जीवन के सभी पक्षों अध्यात्मिक, सामाजिक, सदाचारक, आर्थिक, राजनीतिक आदि के बारे में सही विचारों का धारणकर्ता हो और उस विचार के अनुरूप व्यवहार भी करता हो।           

समाज सुधार के सूत्र और वर्तमान प्रासंगिकता - श्री गुरू नानक देवजी ने अध्यात्म और धर्म की नई चेतना जागृत करने के साथ ही समाज सुधार को अपने कर्तव्यों में पहले स्थान पर रखा। उनका स्पष्ट मत था कि प्रभु को प्राप्त करने के लिये संसार छोड़ने की जरूरत नहीं है बल्कि संसार में रहते हुये सेवा के माध्यम से जीवन मुक्ति को प्राप्त किया जा सकता है। उन्होंने आदर्श समाज और मानव सभ्यता के उत्थान के जो आवश्यक नियम बताये वो कल भी महत्वपूर्ण थे और आज भी प्रासंगिक हैं -
  •      सभी मनुष्य बराबर हैं -  श्री गुरू नानक देवजी ने सदैव कहा कि सारे मनुष्य प्रभु की संतान हैं और आपस में बराबर हैं। उन्हें नस्ल, रंग, भाषा, आजीविका के अनुसार नहीं बांटा जा सकता है।
  •         निर्भयता का आह्वान - मुगलों के कालखण्ड में जब सब अपनी अस्मिता से समझौता करने में लगे थे तब सतगुरूजी ने हुंकार भर निर्भय होकर उनका सामना करने का आह्वान किया। उन्होंने डरो और डराओ का सिद्धान्त दिया।
  •        भ्रष्टाचार मुक्त समाज है आदर्श समाज - नानकजी ने उपदेश दिया कि मनुष्य का आचरण सत्य पर आधारित होना चाहिये। वह किसी का हक मारे, निर्दोषों से छलावा करे। जो समाज भ्रष्टाचार से मुक्त हो वही आदर्श समाज होता है। 
  •        रूपये-पैसे का समान वितरण - श्री गुरू नानक देवजी का कहना था कि जिस समाज में रूपये पैसे का समान वितरण नहीं होता है वह समाज हमेशा गरीबी, बीमारी, भूख से भरा रहता है या लड़ाई झगड़ों में ही उलझा रहता है। उसका उत्थान होना असंभव है।
  •         स्त्री का समाज में सम्मान हो - सतगुरूजी ने जिस कालखण्ड में अपने उपदेश दिये उस समय स्त्रियों की दशा बद से बदतर थी। समाज में उसका कोई सम्मान था। कुछ विशेष काम उनके हिस्से में थे जो उन्हें पूरे करने थे। उसके अलावा उनकी और कोई आवश्यकता समझी जाती। श्री गुरू नानक देवजी ने स्त्रियों की दशा को नकारते हुये कहा कि भक्तों, शूरवीरों, राजा महाराजाओं की जननी होने के नाते स्त्री भी पुरूष के समान ही सम्मान की हकदार है। स्त्री को भी धर्म - कर्म की पूर्ण स्वतंत्रता है। स्त्रियां भी पुरूष के साथ जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में बराबर की हिस्सेदारी रखकर कर्तव्य निभाती है। इसलिये उनका बराबर का आदर करना सारे समाज का कर्तव्य है। उन्होंने स्त्रियों को पुरूषों के बराबर का दर्जा दिया और इसी का परिणाम यह हुआ कि आज गुरूद्वारे में धर्म प्रचारक के रूप में स्त्रियाँ भी सेवा करती हैं। 

6 प्रजा की रक्षा करने वाला ही सच्चा राजा - श्री गुरू नानक देवजी प्रणाली वही हो सकती है जो अपनी प्रजा की भलाई तथा सुख सुविधा का ख्याल करे।
तखति बहै तखतै की लाइक।। 
अर्थ - राजगद्दी पर बैठने का अधिकार उसे है जो इसके योग्य हो, भाव न्यायकारी तथा जनकल्याणकारी राज्य चला सकता हो।
राजा तखति टिकै गुणी, भै पंचाइण रतु।।
अर्थ - राजा का प्रभु के भय में रहना आवश्यक है। प्रभु के भय में रहने वाला राजा ही प्रभु की प्रजा की सच्चे दिल से सेवा कर सकता है।

सत्गुरूजी के दिये उपदेषों के गूढ़ निहितार्थों से निकले इन संदेशों की उपयोगिता तत्कालीन समय में तो थी ही। किन्तु आज सैंकड़ों वर्षों के बाद भी उनकी महत्वता जस की तस बनी हुई है। बात चाहे नारी के सम्मान की हो, भ्रष्टाचार मुक्त समाज की हो या निर्भय होकर सामाजिक रूढ़ियों के बंधन को तोड़ने की हो। वर्तमान दौर में अमन की राह सत्गुरूजी के निर्मल संदेशों पर अक्षरश: चलकर ही पाई जा सकती है। जब हर आदमी नेकी और परिश्रम से कमाई करेगा। जरूरतमंदों की मदद करेगा। तभी आदर्श समाज के उच्चतम प्रतिमान स्थापित हो सकेंगे।
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गुरु नानक देव जी की शिक्षा.

समाज सुधार की त्रिस्तरीय परंपरा

श्री गुरू नानक देवजी ने धर्म और समाज सुधार की जिस नई चेतना का संचार किया उसमें उनका सबसे पहला ध्येय था इंसान, इंसान के बीच भेदभाव करते हुये एकसमान रहना। उनकी नजर में सब प्रभु के बनाये बंदे थे। यही समझाने और सबको संगठित करने के लिये उन्होंने समाज सुधार के नये नये प्रयोग किये। आज उनके अभिनव प्रयोगों का ही परिणाम है सिख धर्म में सब एक बराबर हैं और अन्य धर्मों की तरह उसमें छूआछूत का भय है, ही ऊँच - नीच की कोई दीवार। ही रूढ़िवादिता की कोई संकीर्णता और ही स्त्रियों के लिये निचले तबके के होने का भाव। इन प्रतिमानों को स्थापित करने के लिये नानकजी ने कई क्रांतिकारी प्रयोग किये। जैसे -

  • लंगर - लंगर की व्यवस्था श्री गुरू नानक देवजी ने तत्कालीन समय में मानव से मानव की असमानता के भाव को नष्ट करने और भातृभाव की ज्योति सबमें जलाने के उद्देश्य से की। कालांतर में उनकी यह व्यवस्था मानव सेवा भाव की अद्भुत मिसाल बनी। नानकजी द्वारा शुरू किये गये इस अभिनव प्रयोग का ही परिणाम यह हुआ कि आमजन संगठित होता गया। लंगर में प्रत्येक व्यक्ति जो कार्य कर सकता था कोई कोई कार्य करता, कोई कुएँ से जल लाता, कोई अन्न पीसता, कोई ईधन इकट्ठा करता, कोई भोजन पकाता, कोई भोजन लाकर देता, कोई ग्रीष्म ऋतु के दिनों में ताप के कष्ट को कम करने के लिये भोजन सदन में खाने वालों के ऊपर पंखों से हवा करता, कोई जूठे बर्तन साफ करता इत्यादि। वहां रहने वाले और वहां आने वाले सभी लोग जाति भेद के सिद्धान्त को भूलकरहम सब एक कुटुम्ब के सदस्य हैं।के सिद्धान्त पर ही कार्य करते। इस प्रयोग ने लोगों के मन में एकता की भावना विकसित की जो आज भी उसी तीव्र अनुभूति और सिद्धान्तों के अनुसार चली रही है जैसे कि श्री गुरू नानक देवजी के समय थी  पहले इसका उद्देश्य सभी को एकसमान मानते हुये संगठित करना था और आज इस व्यवस्था से कई बेघर भूखों को भोजन मिलता है और हर किसी को सेवा का अवसर।

  • कीर्तन - श्री गुरू नानक देवजी का ह्दय शुरू से ही कवि प्रवृत्ति का रहा। उन्होंने मानव ह्दय में अनुगूंज करने वाले हर भाव को अपने शबदों के माध्यम से अभिव्यक्त किया। शुरूआत में नानकजी अपने सखा मर्दाने के साथ ईश्वर प्रेरणा से उच्छवासित शबदों का गान किया करते थे जिसे बाद में सामूहिक भक्तों के साथ किया जाने लगा और कीर्तन की महान परंपरा का जन्म हुआ। इसमें सभी को जोड़ने और सबको प्रभु की भक्ति में एकाकार करने का भाव था। इसमें कोई आनन्दमयी उन्मादावस्था नहीं थी बल्कि इसके माध्यम से उपस्थित भक्त गण के मन में प्रभु के कोमल ध्यान का उद्भावन करना ही सदा से इसका उद्देश्य रहा ताकि वे समझें कि हम सब समान हैं और एक ही परिवार के सदस्य हैं।

  • संगत - श्री गुरू नानक देवजी के अभिनव प्रयोगों ने संगत की कीमती परंपरा की आधारशिला रखी। प्रांरभ से संगत परंपरा का उद्देश्य मानव में सेवा की भावना जागृत कर उन्हें क्रियात्मक प्रशिक्षण दिया जाना रहा। इस परंपरा से जुड़ने वालों ने भी तन - मन - धन से इस परंपरा को अपनाया। संगत पंरपरा में आमजन बिना किसी वर्ण, संप्रदाय को मानकर एकत्र होते और एक सरोवर में स्नान करते। एक साथ लंगर करते। संगत परंपरा ने ही आदमी को आदमी से विलग करने वाली जाति-पाति की दरारों को भरा। इसे दूर कर आदर्श समाज का निर्माण करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। श्री गुरू नानक देवजी ने संगत परंपरा में एक प्रभु को मानने वाले धर्म के प्रशिक्षण  केन्द्रों की स्थापना की जिसमें प्रचारकों को नियुक्त कर मानव सेवा को ही असल धर्म मानने की शिक्षा दी गई। यही परंपरा आज भी चली रही है।

शबदों से किया मनः स्थिति का चित्रण

सत्गुरूजी बाल्यवस्था से ही शबदों के माध्यम से अपनी भावनायें व्यक्त करते रहे। जब भी उन्हें कुछ अच्छा लगा या उन्हे किसी रूढ़ि का विरोध करना हो या किसी तत्कालीन स्थिति का मार्मिक वर्णन करना हो, सत्गुरूजी ने शबदों से अपनी भावनायें व्यक्त कर दीं। 

कर्मकाण्डों और आडम्बरों पर नानकजी के शबद - 
सुइने का चउका कंचन कुआर
रूपे कीआ कारा बहुतु बिसथारू
गंगा का उदकु करते की आगि
गरूड़ा खाणा दुध सिउ गाडि
रे मन लेखै कबहू पाई
जामि भीजै साचु नाई
दस अठ लीखे हीवहिं पासि
चारे बेद मुखागर पाठि
पुरबी नादे वरनां की दाति
वरत नेम करे दिन राति
काजी मुलां होवहि सेख
जोगी जगम भगवे भेख
को गिरही करमा की संधि
बिनु बूझे सभ खड़ीअसि बंधि
जेते जीअ लिखो सिरिकार
करणि उपरि होवगि सार
हुकम करहि मुरख गावार
नानक साअे के सिफति भंडार।। 
अर्थ - यदि रसोई का चौका सुवर्ण कुट्टमित हो, सुवर्ण के पात्र हों, सीमा रेखा रजत से अंकित हो, गंगा का जल हो, यज्ञ कुण्ड से लाई हुई अग्नि हो, भोजन दुग्ध में डुबोकर रखा गया हो, महा स्वादु हो, यदि मन भगवान में लीन नहीं तो सब निरर्थक है। यदि किसी के समीप अष्टदश  पुराण लिखे रखे हों, उसे चारों वेद मुखाग्र हों, वह पर्वों पर तीर्थों में स्नान कर चुका हो, स्व-वर्णानुसार दान दे चुका हो, व्रत रखता रहा हो, नियमों का पालन करता रहा हो, कोई मुल्ला, काजी, शेख, योगी, गैरिकवस्त्रधारी कर्मकाण्डी गृहस्थ बन चुका हो। भगवत प्राप्ति के बिना ये सब लोग पाष में बांधकर ले जाये जाएँगे। हमारा निर्णय हमारे कर्मों के अनुसार होगा। जो प्रभुत्व चलाना चाहते हैं वे मूर्ख एवं अज्ञानी हैं। नानकजी ने कहा - केवल परमात्मा ही सत्य है, और उसकी स्तुति ही मेरा धान्यागार है।

मुगलों द्वारा किये अत्याचारों के विरोध में श्री गुरू नानक देवजी के शबद - सैदपुर (तत्कालीन स्थान का नाम) में बाबर के आक्रमण के कारण हुये रक्तपात और हिंसा से द्रवित होकर श्री गुरू नानक देवजी ने हताहत हुये लोगों की स्थिति का मर्मस्पर्शी वर्णन करते हुये कहा (ये शबद गुरू ग्रंथ साहिब में सुरक्षित हैं।)
खुरासान खसमाना कीआ, हिंदुस्तान बड़ाइआ
आपै दोसु देई करता, जमु करि मुगल चड़ाइआ
एती मार पई, करलाणे,तै की दरदु आइआ।
करता तू सभना का सोई
जे सकता सकते कउ मारे ता मनि रोस होई
सकता सीहु पै वगै खसमैं सा पुरसाई।
रतन बिगाड़ि विगोए कुती सुइआ सार काई
आपै जोड़ि विछोड़े आपै वेखु तेरी वडिआई।। 
अर्थ  - ईश्वर। तूने खुरासान को अपनी छत्र-छाया में ले लिया और निर्दोषों की हत्या करवा डाली। तू इस हत्या-काण्ड का कर्ता है तो भी अपने आपको दोषी नहीं ठहराता है। तूने मुगल को यमराज बनाकर आक्रमण करने भेजा। निर्दोषों को इतनी बुरा तरह धुना गया, तुझे दया भी नहीं आई। तू ही सबका जन्मदाता है। यदि एक बलवान अन्य बलवान को मारता है तो लोगों के मन में रोष उत्पन्न नहीं होता है परन्तु जब बलवान सिंह पशुओं के वर्ग पर पड़ता है तब लोग पशु स्वामी से पूछते हैं कि तू कहां गया था। निर्दोषों की बड़ी भारी दुर्दशा हुई। मरने पर उन्हें कोई याद नहीं करेगा। परन्तु प्रभु तेरे कार्य विचित्र हैं। तू स्वयं संयुक्त करता है और वियुक्त भी।

तत्कालीन सामाजिक परिस्थितियों पर गुरूजी के मार्मिक शबद
कहा सु खेल तबेला घोड़े कहा भेर सहनाई
कहा सु तेगबंद गाडेरड़ि कहा सु लाल कवाई
कहा सु आरसीआ मुह बंके ऐथै दिसहि नाहीं
इहु जगु तेरा तू गोसाई
एक घड़ी महि खाधि उथापे जरू वंडि देवै भाई
कहां सु धर दर मंडप महला, कहा सु बंक सराई
कहां जु सेज सुखाली, कामणि जिसु वेखि नींद पाई
कहा सु पान तंबोली हरमा होईआ छाई माई
इसु जर कारणि घणी विगुती इनि जर घणी खुआई
पापा बाझहु होवै नाहीं सुइआ साथि जाई
जिस नो आपि खुआए करता खुसि लए चंगिआई
कोटी हू पीर वरजि रहाए जा मीरू सुणिआ धाइआ
थान मुकाम जले बिज मंदर मुछि मुछि कुइर रूलाइआ
कोई मुगलु होआ अंधा किनै परचा लाइआ
मुगल पठाणा भई लड़ाई रण जिन्हि की चीरी दरगह
पाई तिन्हा मरणा भाई
इक हिंदवाणी अवर तुरकाणी भटिआणी ठकुराणी
इकन्हा पेरण सिर खुर पाटे, इकन्हा वासु मसाणी
जिन्ह के बंके घरी आइआ तिन्ह किउ रैणि विहाणी।। 
अर्थ - वह क्रीड़ा कहां है? वह अष्वषाला कहां है? वह भेरी, वह शहनाई कहां है? कमर का वह खड़ग-बन्धन पट्ट कहां है? वे रथ कहां है? वह रक्त-वर्ण परिधान कहां है? वे आरसियां और वे सुन्दर मुख कहां है? यहां दिखलाई नहीं पड़ते हैं। यह जगत तेरा है, तू इसका स्वामी है। तू एक क्षण में स्थापित, और अन्य में उन्मूलित कर डालता है। संपत्ति भाइयों में फूट डाल देती है। वे घर, द्वार, मंडप, महल कहां है? वे सुन्दर सराय कहां है? वह सुखदायिनी सैया कहां है? वह कामिनी कहां है जिसे देखकर नींद नहीं आती थी। वे पान कहां है? वे तंबोली कहां है? वे भवन, जिनमें उन पानों के खाने वाले रहते थे, कहां है? सब छाया तुल्य विनष्ट हो गये। इस धन के कारण बहुत से लोग मार्ग भ्रष्ट हुये, इस धन से बहुत से लोगों की निन्दा हुई। पापों के बिना धन-संग्रह असंभव है और साथ में एक सुई तक नहीं जाती। परमात्मा स्वयं जिसे विनिन्दित करता चाहता है पहिले उसके सद्गुण छीन लेता है। जब सुना कि मीर (बाबर) चढ़कर रहा है। तब करोड़ों पीरों ने उसे रोकने का यत्न किया। परन्तु वह रूका नहीं। उसने स्थानों को, मुकामों को, वज्र तुल्य दृढ़ भवनों को जला डाला, और राजकुमारों के सिर काट काटकर उन्हें धूलि में मिला दिया। कोई मुगल अंधा नहीं हुआ। किसी पीर ने अपनी करामात का प्रमाण नहीं दिया। मुगलों और पठानों का युद्ध हुआ। परमात्मा के दरबार में जिनका आवेदन पत्र फाड़कर फेंक दिया गया है, उन्हें तो रण-क्षेत्र में मरना ही होगा। कुछ हिन्दू नारियों ने, पठान नारियों ने, भट्टी जाति की नारियों ने, और ठाकुर - राजपूतों की नारियों ने सिर के वस्त्रों को फाड़ दिया है और कुछ शमशान भूमि में वास कर रही है। जिनके सुन्दर प्रियजन घर नहीं आए उनकी रात्रि किस प्रकार व्यतीत हुई?

इस तरह नानकजी ने जीवन की युवा अवस्था में कोसों दूर की धार्मिक यात्राएँ करते हुये मानवजन को जगत में रहते हुये ही जीवन प्रपंचों से मुक्त होने की प्रेरणा दी। अपने नयेनये प्रयोगों से सभी को संगठित किया। एकत्व की भावना का संचार किया। कई रूढ़िगत बंधनों को तोड़ा। निर्भय रहना सिखाया। स्त्रियों को पुरूषों के समान आदर भाव दिया। नव आदर्श समाज की नींव रखी। वे उपदेश दिये जो शाश्वत हैं, तब भी सारे समाज के लिये मार्गदर्शक थे और आज भी हैं।

तीसरा भाग - नानकजी के ईश्वर में एकाकार होने के बाद सिख धर्म की यात्रा

सत्गुरूजी ने अपने जीवनकाल में ही ऐसे आदर्श समाज की नींव रख दी जिससे सारा संसार प्रकाशमान हो रहा है। उनके उपदेशों का उजियारा सारे संसार को नई दिशा प्रदान कर रहा है। श्री गुरू नानक देवजी के बाद के गुरूओं ने भी नानकजी के उपेदशों का अक्षरश: पालन करते हुये सिख धर्म को मानव सेवा की अद्भुत मिसाल के रूप में सारे संसार के सामने प्रस्तुत किया। श्री गुरू नानक देवजी के बाद गुरू अंगद साहिब ने लंगर की मर्यादा को और मजबूत किया। पंजाबी बोली का प्रचार किया, गुरूमुखी लिपि का सुधार किया और बच्चों को कायदे लिखवाये। सिखों को शारीरिक तौर पर स्वस्थ तथा बलवान बनाने के लिये मल्ल-अखाड़े कायम किये। तीसरे पातशाह श्री गुरू अमरदासजी ने गुरमत के प्रचार के लिये सारे देश में मंजीया (उप-प्रचार केन्द्र) तथा पीहड़े (प्रचार केन्द्र) स्थापित किये जो प्रचार के केन्द्र और उपकेन्द्र बने। गुरू रामदास पातशाह ने मसद प्रथा चालू की। मसंदों का काम अलग अलग क्षेत्रों की संगतों को गुरू घर के साथ जोड़े रखना था। वे जहाँ धर्म प्रचार करते थे और कार भेंट एकत्र करते थे, वहीं उस क्षेत्र की संगतों की रिपोर्ट (सिखी का प्रचार कैसे हो रहा है?, कितना विस्तार हुआ है?, कौन -कौन से गुरसिख विशेष तौर से कौमी सेवा में लगे हुये हैं?, आदि का विवरण) गुरू दरबार में प्रस्तुत करते थे। गुरू अर्जुन साहिब ने श्री गुरू ग्रंथ साहिब का संपादन करके सिखों को शबद गुरू की निधि प्रदान की। श्री हरिमंदर साहिब का निर्माण करके अमृतसर को एक व्यापारिक नगर के रूप में विकसित करके सिखों की आर्थिक दशा को मजबूत किया।

दशवध (आय का दसवां हिस्सा - धर्म कार्यों पर व्यय करने हेतु।) की प्रथा आरंभ की। छठवें पातशाह श्री गुरू हरि गोविंद साहिबजी ने सिखों को तलवार पकड़ाई। भक्ति तथा शक्ति का मेल कराया। आपने हरमिंदर के समीप अकाल तख्त की स्थापना की। स्थापना करके धर्म तथा राजनीति को व्यावहारिक तौर पर आपस में जोड़ दिया। गुरू हरि रॉयजी तथा गुरू हरिकृष्नजी साहिब ने भी अपने समय में गुरमत की खुषबू को फैलाया। नौंवी पातशाह श्री गुरू तेग बहादुरजी ने सिखों को स्वाभिमान से जीने तथा समय आने पर मृत्यु को पूरे स्वाभिमान के साथ गले लगाने का प्रशिक्षण दिया।

श्री गुरू नानक देवजी और श्री गुरू नानक देवजी के बाद के गुरूओं के महॉन यत्नों से जब सिख एक मजबूत और संगठित समाज के रूप में संगठित हो गये तब साहिब श्री गुरू गोविंद सिंहजी ने 30 मार्च 1699 को वैशाखी वाले दिन उनकी परीक्षा ले कर उन्हें विधि पूर्वक एक कौम का रूप दे दिया।

श्री गुरू नानक देवजी पर इतिहासकारों की दृष्टि

गुरूजी के जीवनकाल में जहांजहां सतगुरू प्रचार करने गये वहां वहां सिख धर्म भारत के कोने कोने में फैल गया।
मिर्जा गुलाम अहमद कादाआ लिखते हैं -  उस समय जब रेल, हवाई साधन नहीं थे, प्रेस तथा प्लेटफार्म के द्वारा प्रचार के साधन उपलब्ध नहीं थे। श्री गुरू नानक देवजी ने सारे हिन्द में ही नहीं एशिया, यूरोप, अफ्रीका के विशेष क्षेत्रों में प्रचार करके लगभग 3 करोड़ श्रद्धालुओं को गुरूदीक्षा देकर सत्य धर्म के मार्ग पर चलाया।

श्री सी. एच. पैन ने सिख धर्म को जनसाधारण का धर्म बताते हुये लिखा है ‘‘व्यावहारिक धर्म श्री गुरू नानक देवजी ने दर्शाया। उन्होंने मुसलमानों, हिन्दुओं, किसानों, दुकानदारों, सिपाहियों, गृहस्थियों को उनके अपने कारोबार करते हुये कामयाबी प्राप्त करने का रास्ता बताया। श्री गुरू नानक देवजी फोकी फिलासफियों, रस्मों, रिवाजों, जातियों से ऊँचा उठे और लोगों को उठाया।

संसार के पांच सौ भिन्न भिन्न धर्मों का अध्ययन करने वाले अमरीका के विद्वान एच. एल. ब्रॉडशा सिख धर्म को आज के मनुष्य तथा उसकी सभी उलझनों का सही हल दर्शाते हैं। डॉ. ब्रॉडशा ने अपना लंबा सा लेख सिख रिव्यू अंग्रेजी में कोलकत्ता में छपवाया था। बाद में यह कई पत्र पत्रिकाओं में छपा। इसमें उन्होंने लिखा। ‘‘सिखी एक सर्व-व्यापक अथवा संपूर्ण जगत का धर्म है तथा मानव मात्र को समान संदेश देता है। इस बात की, गुरवाणी में खूब व्याख्या की गई है। सिखों को यह सोचना बंद कर देना चाहिये कि सिखी एक और अच्छा धर्म है। बल्कि इसके उलट इस प्रकार सोचना चाहिये कि सिखी ही नवीन युग का धर्म है। यह पूर्ण तौर पर पुराने मतों का स्थान लेता है। इस बात को सिद्ध करने के लिये पुस्तकें लिखने की सख्त आवश्यकता है। दूसरे मत सच्चाई रखते हैं परन्तु सिख मत में भरपूर सच्चाई है।

इन तीन भागों की यात्रा के बाद अब यह हमारे सामने स्पष्ट हो जाता है कि कैसे सामाजिक, सांस्कृतिक और ऐतिहासिक महापरिवर्तन के दौर का सामना करते हुये श्री गुरू नानक देवजी ने अपनी अलग राह का निर्माण करते हुये सारे जगत को प्रकाशित किया। उनके दिखाये मार्ग से आज गृहस्थ आश्रम में रहते हुये ही सारी मानव जाति उद्धार पा रही है। अपनी जीवन यात्रा में श्री गुरू नानक देवजी ने दार्शनिक, समाज सुधारक, कवि और धर्मसुधारक की भूमिका का निर्वाह किया। आमजन तक अपने उपदेशों को पहुँचाने के लिये उन्होंने फारसी, मुल्तानी, पंजाबी, सिंधी, खड़ी बोली, अरबी भाषा के शब्दों का प्रयोग किया। एकात्म ईश्वर की भक्ति में लीन होकर मानव सेवा को ही सबसे बड़ा धर्म माना। कई रूढ़ियों तथा पुरातन जड़ परंपराओं का उन्मूलन करते हुये एक ईश्वरवाद का जो मार्ग सुझाया उसमें समस्त मानव जाति के कल्याण की भावना अंतर्निहित थी।

श्री गुरू नानक देवजी पर लिखी जनमसाखियों में उद्धृत है कि श्री गुरू नानक देवजी के भक्तों में ज्ञानी, ध्यानी, कुटीचक्र, आश्रमवासी, भिक्षु, अकिंचन, अभिजात, वैष्णव, ब्रहाचारी, योगी, दिगम्बर, सन्यासी, तपस्वी, दुग्धाहारी, भक्त, भाट, विरक्त, सिद्ध, साधु, फकीर, दरवेश मुसलमान रहस्य-मार्गी, मुसलमान संत, जिज्ञासु, तार्किक, पीर, शिक्षक, हिन्दू, मुसलमान, गृहस्थ, राजा, रंक, प्रायष्चिती, क्षत्रिय, ब्राहाण, वैष्य, शूद्र, पंडित, कवि, गायक सभी थे जिन्होंने मानव सेवा को ही अपना धर्म स्वीकार किया।

श्री गुरू नानक देवजी के उपदेशों की वर्तमान प्रसांगिकता

यहाँ नानकजी के समय की एक घटना उद्धृत है -
फिरि पूछणि सिध नानका। मात लोक विचि किया वरतारा।
सब सिधी इह बुझिआ कलि तारणि नानक अबतारा।
बावे आखिआ नाथजी। सचु चंद्रमा कूडु अंधारा।
कूडु अमावसि वरतिआ हउ भालणि चढ़िआ संसारा।
पाप गिरासी पिरथमी धउलु खड़ा धरि हेठ पुकारा।
सिध छपि बैने परवति, कउणु जगत्रि कउ पारि उतारा।
जोगी गिआन बिहूणिआ निसिदिन अंगि लगाइनि छारा।
वाझु गुरू डूबा जगु सारा। 
अर्थ - एक बार सिद्धगण ने श्री गुरू नानक देवजी से पूछा - ‘‘सुनाओं मुनष्य लोक का क्या समाचार है। गुरूजी ने उत्तर दिया - ‘‘नाथगण, जगत अंधकार से व्याप्त है। सत्य का चन्द्रमा लोचन-गोचर नहीं होता है। पृथ्वी को पाप ने पकड़ रखा है और वह अन्याय के भार के तले दबी हुई हाय - हाय कर रही है। सिद्धगण पलायन करके पर्वतीय कन्दराओं में चला गया है। वृति स्वयं क्षेत्र को चर रही है। लोगों में अज्ञान भरा हुआ है। चेले बाजे बजाते हैं, गुरूजी नाचते हैं। गुरू दक्षिणा ऐंठने के लिये चेलों के घर जाते हैं। काजी धन के लोभ में न्याय नहीं करते हैं। जगत की यही अवस्था है।“

यही हाल तब का था और यही हाल आज उनके जन्म के 550 वर्ष बीतने के बाद भी है। ऐसे में उनके उपदेशों की प्रासंगिकता आज पहले भी ज्यादा बढ़ गई है। सिख धर्म को आदर्श समाज बनाने वाले उनके उपदेश कि
  • प्रभु के नाम सिमरन ही सच्चा तीर्थ है बाकी सब आडम्बर।
  • आदर्श समाज में सभी को नशे वाली चीजों से दूर रहना है।
  • स्त्रियों को घुंघट निकालने की कोई जरूरत नहीं।
  • स्त्रियों को भी पुरूषों के समान सम्मान देना जरूरी है।
  • एक ईश्वर की आराधना करनी चाहिये।
  • निर्भय होकर जियें।
  • रूढ़ियों का डटकर विरोध करें।
  • ईमानदारी की कमाई कमाये।
  • ईमानदारी से कमाने के बाद उसका कुछ हिस्सा जरूरतमंद के लिये सद्उपयोग करें।

आज भी इन शाश्वत् उपदेशों के बल पर ही चलकर आदर्श समाज बन सकता है। श्री गुरू नानक देवजी के उपदेश हर कालखण्ड और समय के परे हैं जिनकी आज भी उतनी ही जरूरत है जितनी पहले थी।
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संदर्भ -
1. पुस्तक - गुरू नानक : जीवन प्रसंग, लेखक - डॉ. महीप सिंह, पेज नंबर - 11
2. पुस्तक - गुरू नानक : जीवन प्रसंग, लेखक - डॉ. महीप सिंह, पेज नंबर - 8
3. गउड़ी गुआरेरी महला 1, पेज 222
4. रागु गउड़ी चेती महला 1, पेज 155
5. पुस्तक - जीवन यात्रा तथा सिद्धान्त श्री गुरूनानक देवजी, लेखक - कृपाल सिंघचंदन’, पेज 96
6 पुस्तक - जीवन यात्रा तथा सिद्धान्त श्री गुरूनानक देवजी, लेखक - कृपाल सिंघचंदन’,  पेज 94-95
7. गउड़ी सुखमनी, पेज 266
8. पुस्तक - जीवन यात्रा तथा सिद्धान्त, श्री गुरूनानक देवजी, लेखक - कृपाल सिंघचंदन’, पेज 96-97
9. मारू सोलहे महला 1, पेज 1039
10. मारू महला 1, पेज 992
11. गुरू ग्रन्थ साहिब, पेज 1169
12. गुरू ग्रन्थ सहिब, आसा रागु, पेज 360
13. गुरू ग्रन्थ साहिब, आसा रागु, पेज 417-18
14. पुस्तक : जीवन यात्रा तथा सिद्धान्त श्री गुरूनानक देवजी, लेखक - कृपाल सिंघचंदन’, पेज 106 - 107
15. पुस्तक : जीवन यात्रा तथा सिद्धान्त श्री गुरूनानक देवजी, लेखक - कृपाल सिंघचंदन’, पेज 103
16. पुस्तक : जीवन यात्रा तथा सिद्धान्त श्री गुरूनानक देवजी, लेखक - कृपाल सिंघचंदन’, पेज 103
17. पुस्तक : जीवन यात्रा तथा सिद्धान्त श्री गुरूनानक देवजी, लेखक - कृपाल सिंघचंदन’, पेज 104
18. भाई गुरदास, वार 1/29


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